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पिताओं की विरासत : हमारे संस्कारों की अमिट छाया

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हर वर्ष जून का तीसरा रविवार केवल एक तारीख नहीं होता, यह दिन हमें अपने जीवन के उन स्तंभों की ओर देखने का अवसर देता है, जिनके कंधों पर चढ़कर हमने संसार को देखा — हमारे पितृ, हमारे जीवन के मूल शिक्षक।

पितृ दिवस पर जब संपूर्ण विश्व अपने पिताओं को याद करता है, तब मेरी स्मृतियों में तीन महान पुरुषों की छवि उभरती है —
मेरे पूज्यनीय स्वर्गीय श्री चंद्रशेखर त्रिपाठी (बड़े पिता),
पूज्यनीय श्री दयाराम त्रिपाठी (बड़े पिता),
और मेरे पूज्य जन्मदाता श्री गंगादीन त्रिपाठी।

इन तीनों ही विभूतियों ने मुझे न केवल जीवन देना, बल्कि जीने का उद्देश्य भी सिखाया।
उन्होंने बताया कि जीवन संघर्षों से भरा होता है, लेकिन उस संघर्ष में यदि सत्य, सेवा और समर्पण की भावना जुड़ी हो, तो वह तपस्या बन जाती है।

बड़े पिता चंद्रशेखर त्रिपाठी जी का संयम और अनुशासन,
दयाराम त्रिपाठी जी की सरलता और सामाजिक समर्पण,
और मेरे पिता श्री गंगादीन त्रिपाठी जी की दृढ़ता और नैतिकता —
इन सबका सम्मिलित प्रभाव आज भी मेरे जीवन के निर्णयों में परिलक्षित होता है।

उन्होंने सिखाया कि दूसरों के लिए जीना ही सच्ची मानवता है।
हर उस व्यक्ति की सहायता करना, जो ज़रूरत में हो,
हर उस आवाज़ के साथ खड़ा होना, जो सत्य के लिए उठे,
और अपने कर्मों से समाज को बेहतर बनाना — यही उनकी शिक्षा थी।

आज जब समाज कई स्तरों पर चुनौतियों का सामना कर रहा है,
तब हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित मूल्य और सिद्धांत एक प्रकाशस्तंभ की तरह हैं।
उनकी स्मृतियाँ महज़ व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक धरोहर हैं।

इस पितृ दिवस पर हमें केवल श्रद्धांजलि नहीं देनी है,
बल्कि यह संकल्प भी लेना है कि हम उनकी शिक्षाओं को अगली पीढ़ी तक पहुँचाएँ।
उनकी विरासत को जीवित रखना, हमारे कर्तव्य के साथ-साथ गर्व का विषय भी है।

आज मैं उन सभी पिताओं को नमन करता हूँ, जिन्होंने अपने बच्चों को केवल नाम नहीं,
जीवन जीने की दृष्टि दी।

लेखक: [बिरेंद्र मणि त्रिपाठी / संपादक ]

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