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आध्यात्म चिन्तन की जरूरत : रविन्द्र द्विवेदी

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कुंठिता की ओर अग्रसर होता आज के मानव समाज ने आज जो सवाल मानव जीवन पर किया है । संभवतः इसका उत्तर आध्यात्म चिन्तन के बगैर नही दिया जा सकता । विश्व के पटल पर जो गरिमामई मानव जीवन की श्रेष्ठता बताई गई है सही मायने मे उसके अर्थ को जाने बगैर हम आध्यात्म तो क्या जीवन को भी नही समझ सकते । हालांकि सृष्टिकाल से मानव जीवन की श्रेष्ठता जो मानी गई है उसके अर्थो मे बहुत कुछ वक्त ने यदा कदा दिखा दिया है । कभी पुरुषोत्तम राम के रूप मे तो कभी श्री कृष्ण के रूप मे तो कभी आद्य शंकराचार्य आदि के रूप मे दिखाया है । जिनके जीवन का सार हमे सद्ग्रंथो से प्राप्त होते है । बावजूद जीवन की उत्कृष्टता मे काफी पीछे दृष्टिगत हो रहे है । मानव जीवन के दर्शन मे अपौरुषेय वेद ” अष्टाचक्रा नवाद्वारा देवानां पूरयोध्या । तस्यां हिरण्यय: कोश: स्वर्गो ज्योतिषावृत: ।। जिसमे आठ चक्र और नौ द्वार है देव शक्तियोकी पुरी ( नगरी ) यह अयोध्या है उसमे जो तेजस्वी कोश है । वही तेजस्विता से युक्त स्वर्गीय आनन्द से परिपूर्ण है । स्थूल , सूक्ष्म , कारण “
पंचीकृत पंचमहाभूतै: कृतं सत्कर्म जन्य: सुखदु:खादि भोगा यतनं शरीरम अस्थि जायते वर्धते विपरिणामते अपक्षीयते विनश्यतीति षडविकारव देतत स्थूलं शरीरम । अपंचीकृत पंचमहाभूतै: कृत सत्कर्म जन्यं सुखदु:खादि भोगसाधनं पंचज्ञानेंद्रियाणी पंच कर्मेंद्रियाणी पंचप्राणदय: मनश्चैकं बुद्धिश्चैक: एवं सप्तदशकलाभि: यस्तिष्ठति तत्सुक्ष्मशरीरम । अनिर्वाच्यानाद्यविद्या रूपं शरीर द्वयस्य कारणमात्रं सत स्व स्वरूपज्ञानं निर्विकल्पकरुपं यदस्ति तत्कारणशरीरम ” के संयोग से श्रुति और सद्ग्रंथो के वाक्य ” मानुषम देहं सुदुर्लभम ” बड़े भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा ।। नर तन सम नहि कवनऊ देहि । जीव चराचर जातत तेहि ।। के उपदेश मानव जीवन की श्रेष्ठता को सार्वभौमिक बना रहे है । वही दिव्य जीवन मे ऋषि मुनियो का जीवन सैकड़ो वर्षो के बाद भी राग द्वेष आदि अवगुणो से मुक्त रहा । इसके बावजूद आज का मानव समाज अपनी तेजस्विता खोकर विखंडन का दर्शन कर रहा है ।

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